बौआ, महुआ बीछअ नै चलबे ?
अँधेरा-सा ही छाया रहता कि दादी जगाती हुई कहती "चल, ईजोत भ गेलै! नै ता केयो और बीछ लेतौ!".. कितनी भी गहरी नींद हो, हम फुर्ती से उठते और आँखें मीचते हुए अपनी टोकरी खोजने लग जाते.. अँधेरे में इधर-उधर गिरते-पड़ते हमें हमारी टोकरी मिल जाती और हम दादी के साथ गाछी के लिए रवाना हो जाते. हमारे पेड़ का महुआ कोई और बीछ ले, ये हमें कतई मंजूर नहीं था !
दादी आगे-आगे चलतीं और उनके पीछे हम टोकरी लिए लेफ्ट-राईट करते रहते! बीच-बीच में उनकी हिदायत भी रहती कि टट्टी-पखाने से बचते चलो! घर से निकलते ही अपने दालान पर बैठकर दतवन करते हुए रमाकांत कक्का मिल जाते तो कभी चापाकल पर नहाते पराती गाते लक्खन चचा! कभी-कभी तो सड़क के किनारे निवृत्त होते हुए कोई दोस्त भी दिख जाता! चूंकि उस वक्त धुंधलका-सा ही छाया रहता था तो कभी-कभी गाय-गोरू को देखकर भूत-प्रेत का भी भ्रम हो जाता! रास्ते में चाय दूकान वालों ने मिट्टी का चूल्हा सुलगा कर उसपर अपनी केतली रख दी है! फेकन चायवाले ने अपने रेडिओ के कान उमेठना शुरू कर दिया है! दादी आगे-आगे चली जा रही हैं और पीछे-पीछे हम कभी कच्छप चाल तो कभी शशक चाल !
अब हम खेत में उतर गए, दो-तीन खेत पार कर हमारी गाछी शुरू होती थी! जैसे ही खेत में टपते, पीछे से खेतवाला आवाज़ लगाता "के हबे? के खेत के बीच्चे दने जाई आ?" दादी हमें डांटती हुई उसे कहतीं "हम छी हो मनोरथ..!" खेतवाला अब नरम पड़ जाता! "अच्छा अहाँ छी मलकिनी, कनी बौआ के कहियौ आरी दने जाई ला!" हम पुनः अपने रास्ते पड़ आ जाते! अब हमारी चाल भी सीधी हो जाती! लीजिए हमारी गाछी आ गयी.. आम के मज्जरों की सुगंध, कोयल की कूक और महुए का टप-टप संगीत एक अत्यंत खुशनुमा-सा माहौल बनाते! अरे ये क्या, हमारे पेड़ के नीचे दो काले साए! मैं डर से दादी के पीछे हो लेता! तभी दादी जोर से फटकार लगाती "के महुआ बिछई आ?" दोनों काले साए बुलेट की गति से फुर्र हो जाते! गाछी की जमीन महुए से पटी पड़ी है! ऐसा लगता मानो प्रकृति रानी का कंठहार टूट गया है और उसके मोती सर्वत्र बिखर गए हैं! हम कभी इधर से उठाते तो कभी उधर से! दादी एक तरफ से बीछ-बीछ कर टोकरी भरती जातीं!
अचानक पीछे से कोयल ने कूक लगाई! हम भी उसके साथ जोर से आवाज़ लगाते "कूऊऊऊ".! कोयल उससे भी जोर से कूकती! हम भी कहाँ हार मानने वाले थे! हम उसे खूब चिढ़ाते! अजीब जुगलबंदी होती थी ये! सुबह का उजाला धीरे-धीरे फैलने लगता.. हमारी टोकरी भर चुकी होती.. दादी अब महुआ बीछना छोड़ के पेड़ों के मज्जर निहारती.. मज्जर निहार के ही इस बार कितने आम आएँगे, बता देतीं थी दादी.. हम पेड़ के नीचे बैठकर टोकरी में रखा महुआ उठा-उठा के देखते रहते और कभी-कभी दादी से आँख बचाकर कोई साफ़ वाला महुआ चुप से मुंह में रख लेता! अचानक टप्प से सिर पर महुआ चूता और हम सर सहलाते हुए उसे भी टोकरी में अन्य साथियों के बीच मिला देते! अब गाछी में निवृत्त होने वालों की आवाजाही शुरू हो गयी है! हमारे अन्य दोस्त भी अपनी-अपनी गाछियों से महुआ बीछकर सिर पर लादे आ रहे हैं! एक बूढ़ा बाबा भी रामनामी गमछा ओढ़े कमंडल लेकर लाठी टेकता हुआ चला जा रहा है!
तब दादी आवाज़ लगातीं "चल आब, तोहर इसकूल के टाइम भ गेलौ!" बड़ी वाली टोकरी दादी उठातीं, छोटका छिट्टा हम उठाते और घर की तरफ चल देते! इतनी देर में हमने चटनी के लिए चार-पांच टिकोलो का भी जुगाड़ कर लिया! रास्ते में हम दादी से पूछते कि "महुआ खेला सँ पेट में गाछ नै-नै भ जाई छै?" वो समझ जातीं की हमने महुआ उड़ा मारा है! हम घर पहुँच गए! दोनों टोकरी बीच आंगन में पटक दी! महुए मोतियों की तरह बिछ गए! दादी चाय पीने लगीं, मम्मी ने टिकोलों को रख दिया और मैं स्कूल के लिए तैयार होने लगा! महुआ सुखाया जाता फिर गाँव का व्यापारी प्रमोद आकर उसे खरीद ले जाता! हमें मतलब नहीं था वो सुखाया क्यों जा रहा है, कितने में बिका, उसका क्या इस्तेमाल होगा! हमारा काम बस सुबह उठके महुआ बीछना था बस! हम इस बीछने की प्रक्रिया को ही उत्सव मानते! प्रकृति खुले हाथों से सोने की अशर्फियाँ लुटा रहीं हैं और हम टोकरी भर-भर के घर ले जा रहे हैं!
गाँव छोड़े आज छह साल हो गए! दो साल से गाछी नहीं गया! गाछी में अब पहले की तरह पेड़-पौधे भी नहीं बचे! कोयलों का तो लगता है निर्वासन ही हो गया! महुए का पेड़ है कि नहीं, पता नहीं लेकिन उसी से दस-बीस कदम दूर दादी की समाधि-स्थली है!
अमन आकाश, एम.ए. (मास कॉम)
महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय, वर्धा
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