ये ज़िन्दगी के मेले..
आज भी जब कहीं "मेला" लिखा
पढ़ता हूँ या सुनता हूँ तो अनायास ही ज़ेहन में वो सारे चित्र उभर आते हैं, जो कभी हमारे गाँव
के मेले का हिस्सा हुआ करते थे.. मेरा गाँव सीतामढ़ी जिले में नेपाल की सीमा से लगा
हुआ है.. हमारा क्षेत्र मिथिलांचल हमेशा से अपने सामाजिक सौहार्द के लिए जाना जाता
है. वस्तुतः मेला लोगों के मिलन का एक जरिया है, जिसमें धर्म, जाति, वर्ग आड़े नहीं आता.
मुझे आज भी याद है जब भी गाँव में
नवरात्रे का मेला लगता, कासिम के चूड़ियों की दूकान पर सबसे ज्यादा भीड़ लगती. उसके हाथ की
लाख की चूड़ियाँ खूब पसंद की जाती थी. और, जब भी कभी ईद का मेला लगता, महेश हलवाई की
मिठाइयां सबसे ज्यादा बिकतीं. सबसे ज्यादा मजेदार होता था कार्तिक पूर्णिमा के
अवसर पर गाँव से 4 किमी. की दूरी लगने वाला "धौंस मेला".. दरअसल धौंस नदी
का नाम है, मान्यता है कि धौंस आगे जाकर गंगा नदी से मिल जाती है.. कार्तिक
पूर्णिमा के दिन गंगा स्नान के नाम पर सुबह 3 बजे से ही भारी मात्रा में लोग धौंस
की तरफ निकल जाते थे.
पूरा गाँव खाली-सा हो जाता. गाँव की
सारी छोटी-छोटी दुकानें भी उस दिन धौंस के किनारे ही सजती थी. छोटी उम्र से ही हम
उस मेले में शरीक होते थे. पहले तो दादी की मण्डली के साथ जाना होता था. दादी और
उनकी सहेलियां नदी में चुभकतीं और मैं नदी के किनारे बैठ मुंह बनाकर लोटे से नहाता
रहता. नहान क्रिया संपन्न होने के बाद पेट-पूजा का समय होता. उस समय घर से पूड़ीयां
बनवाकर अचार के साथ लिए जाते थे.. नहाने के बाद दादी की मण्डली एक जगह जमती और फिर
वहां शुरू होता था खाद्य-पदार्थों का आदान-प्रदान. इधर कचड़ी-मूढ़ी, आलू चाप, पूड़ी-अचार पर हाथ
साफ़ होते और मैं हाथ में जलेबी लिए इधर से उधर डोलता रहता.
उस समय
कोई फिकर न थी. खाना और खेलना, हमारी दिनचर्या में
दो चीजें ही शामिल थी. उमर भी सात-आठ साल के करीब रही होगी. फिर मेरी नज़र किसी
गुब्बारे वाले पर पड़ती और मैं भागा हुआ दादी के पास चला आता. पहले तो दादी का
एकटूक जवाब होता "नहीं लेना है, दो मिनट में फूट जाएगा". लेकिन
हमारे रोने-पटकने पर वो आंचल की खूंट से बंधा पच्चीस पैसे का सिक्का निकाल के
देतीं और हम ऐसे खुश हुए गुब्बारे वाले के पास दौड़ते मानो हमारी बड़ी लाटरी लग गयी
हो. जैसा कि दादी ने पहले भी कहा था, दो मिनट में ही सच में गुब्बारा परलोक
सिधार देता. अब हम फिर फूट-फूट के रोना शुरू कर देते. इस पर दादी आके हमें ठोक
देती. हमारे रोने की तीव्रता और बढ़ जाती. तभी उनकी सहेलियों में से कोई हमारी बांह
पकड़कर टाँगे हमें चक्करघिन्नी वाला झूला झुला आतीं. हम फिर हंसते लौट आते. हमारे
लिए मेले का मतलब ही होता था जलेबियाँ खाना, गुब्बारे उड़ाना, झूला झूलना और घर
लौटते समय भोंपू खरीद कर रास्ते भर "पों-पों" बजाते आना. सुबह के नीम
अँधेरे में निकले हम देर शाम वापस लौटते. उस समय ना कोई फेसबुक था ना व्हाट्सएप.
अपनी खुशियों को स्वयं जीते थे,
महसूस करते थे. अच्छा ही हुआ कि वो
दौर सोशल मीडिया का न था, नहीं तो हम तो सेल्फी और अपडेट के चक्कर में मेला के मूल रस से नावाकिफ़
ही रह जाते.. आप भी सोचिए ना,
क्या आज के दौर में किसी मेले में कोई
"हामिद" जाता होगा?
आज के दौर में किसी बूढ़ी अमीना की
जलती ऊँगलियाँ उसके पोते की नज़र में आती होंगी? अजी कहाँ! ना अब वो मेले रहे ना कोई
हामिद रहा !
खैर, धौंस मेला अब भी लगता था. अब हमारी
उम्र बारह से तेरह के बीच में थी. हमने अब दादी की मण्डली के साथ जाना छोड़
दिया.. अब हमारी अलग मित्र-मंडली निकलती थी. हम अब गंगा स्नान करने नहीं जाते थे, बल्कि घर से नहाकर
तेल-फुलेल लगाकर मेले का मज़ा लेने जाते थे. मेला को देखने का हमारा नजरिया बदल
गया. अब मंडली में बैठ के पूड़ी-अचार खाना हमारे लिए शर्म की बात थी, हमारी नज़र समोसे और
गुलाबजामुन पर होती. एक-दो चक्कर चूड़ीहारिनों की दूकान की तरफ के भी लगते. प्यार
में पड़ने की उमर जो थी हमारी साहब.. इसी उमर में हमने धौंस मेले से "प्यार
भरी शायरी" और "लेडी चैटर्ली के लवलेटर्स" जैसी न जाने कितनी
किताबें खरीदी थीं. झूले के पास अब हम झूलने कम आँखें सेंकने ज्यादा पहुँचते थे.
उमर का तकाजा था भाई. अब मेले से लौटते समय हमारे पास भोंपू नहीं बल्कि मुंह में
पान हुआ करता था. कभी एक चवन्नी हमारे लिए खुशियाँ ला देती, अब दस रूपए का नोट
भी कम पड़ जाता था. चार-पांच घंटे मेले में बिताकर हम उकताकर घर लौट आते. ये
सिलसिला भी लम्बे समय तक चला. मुझे आज भी याद है कि लास्ट टाइम मैंने धौंस मेले से
अपनी प्रेमिका को आधा किलो जलेबी खरीद के दी थी. उसे जलेबी बड़ा पसंद था.. खैर!
जैसे-जैसे हम बड़े होते गए, मेले में जाने की रूचि कम होती गयी. अब अगर कभी किस्मत से कार्तिक
पूर्णिमा के दिन गाँव में होता हूँ तो बाइक से आधे घंटे के लिए मेले में जाने की रस्म
पूरी कर देता हूँ! हम पर अब बाज़ारवाद की चकाचौंध जो हावी होने लगी है. देश की
राजनीति, गाँव की राजनीति ने सब लील लिया. समय के साथ हम बुद्धिमान होते
जाते हैं या बुद्धिहीन इस प्रश्न पर विचार किया जाना चाहिए! अब कासिम मेले में
दुकान लगाने से पहले सौ बार सोचता है! अब ईद में महेश हलवाई मक्खियाँ मारता है. अब
गाँव में महावीरी झंडे और ताजिए के जुलूस
खुशियाँ नहीं बल्कि उन्माद पैदा करते हैं! अब मेले में हर एक शख्स एक दूसरे को शक
की निगाहों से देखता है! माहौल ही ऐसे बन गए हैं कि मेले में चिमटा खरीदता हामिद
भी अब हमें कट्टा खरीदता नज़र आता है! काश कि कोई लौटा दे हमें हमारे गाँव का मेला, चक्करघिन्नी पर
झूलने को ये दिल आज भी मचल रहा है !
ये ज़िंदगी के मेले, दुनिया में कम न
होंगे,
अफ़सोस हम न होंगे..
अफ़सोस हम न होंगे..
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अमन आकाश, एम.ए. (मास कॉम)महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय, वर्धा
wah bhai.tumne to bachpan ki yade taja kar diye.
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